30 जन॰ 2012

राम

राम कथा हैं ,
राम पुरुष हैं ,
राम चरित हैं
राम बनवास /
रावण वध को
त्याग तपस्या ,
जन जन की
वोह बन गए आस /
भ्रात्र प्रेम का
मात्र प्रेम का
गुरु भक्ति ,
आदर्श राज्य का /
पशु पक्षी भी
बच न पायें
राम प्रेम को
भूल न पायें /
दहन हुआ फिर
राक्षसता का
देवत्व विजित फिर
स्वर्ग सुगंध सा
संहारों से मुक्ति देते
राम हमारे ,
सब सुख देते
सब सुख देते /

29 जन॰ 2012

आ बसंत

पीली धरती !
सरसों बरसी !
चंचल मन ,
तितली मचली,
भँवरे गूंजे
डाली डाली ,
पक्षी झूले /
रूठी कोयल ,
कलरव अनंत ,
आ बसंत ,
आ बसंत /

"आसमान '"

आसमान से बातें कर लें ,
बादल को फिर मित्र बना लें ,
पूछें -क्यूँ रोता है ?वर्षा करता ,
अश्रु रोदन के या हर्षित होता /
पक्षी कलरव करते उड़ते ,
पंक्ति जैसे कविता लिखते ,
बादल बीच सूर्य झरोखा ,
चन्द्र दिखाता अंश खेल का ,
तारे छितराए से !
जन्म मृत्यु को प्राप्त हुएय से ,
आदि शब्द था ,अंत न उसका ,
शब्द खेल है संघातों का ,
अन्दर बाहर,प्रेम पीर का !
इसी प्रेम से उपजी सृष्टि ,
इसी प्रेम की हम पर दृष्टि /

26 जन॰ 2012

"ये गणतंत्र"

आ मनाएं ,
दिवस गण तंत्र ,
गण तो रूठा
भ्रष्ट हुआ तंत्र /
पार्टियाँ बदलते ,
वो बन गया मंत्री
परेडों से सलामी से
पद्म श्री ,पद्म विभूषण
भूला न गया आज भी
वो कारगिल का सन्तरी/
भ्रष्टाचार बना आचार,
लोक तंत्र का बना अचार/
इधर गुटबाजी ,उधर माफिया
नेता जिया ,सिर्फ धन के लिए जिया /

आ मनाएं ,
दिवस गण तंत्र ,
मान सरोवर ,कैलाश पर्वत
आधा कश्मीर औ पूरा तिब्बत ,
चीन पाक के कब्जे में परतंत्र ,
आ मनाएं ,
अपना ये गण तंत्र //

24 जन॰ 2012

"कालजेय"

कभी कभी यह ,
सोचा करता !
अगर काल यह ,
रोका जाता !
प्रतिपल मुठ्ठी ,
हाथ बढाकर ,
उड़ते पल को !
पकड़ा करता ,
मुठ्ठी खोल ,
पलों को फिर !
तितली जैसा ,
खूब उड़ाता /
चाहे जब ,
आनंद मनाता
चाहे जब ,
मुखरित हो जाता /
कालजेय सा ,
छाती ताने ,
स्वप्न स्वयं के ,
सच कर पाता//

23 जन॰ 2012

"व्यक्त कर ले"



कौन कहाँ ,
दूर कितना !
सोच भर ले !
गमन कर ले ,
व्यक्त कर ले ,
समय कम है ,
कलम से ही ,
अभिव्यक्त कर ले !
सोच का गमन तेरा ,
देख चेतन ,
या अचेतन ,
प्रवाह के ,
प्रभाव से ,
सृष्टि के ,
विश्वास से !
दूर तक तू ,
गमन कर ले !
आज तू अभिव्यक्त कर ले /
आज का अस्तित्व तेरा ,
व्यक्त कर ले ,//

" सभी भिखारी "

जा देख !
मांगता है वो भी ,
स्वामी ,अट्टालिकाओं का
जो महत्व का ,
श्रेष्ठ समाज का ,
मांगता है वो भी ,
जो सत्ता में है मद मत्त
ऐश्वर्य में रत ,
मांगता है वो भी ,
जो है धरा का स्वामी ,
चांदी की चम्मच लिए जन्मा ,
मांगता है वो भी ,
उन्ही दो हाथों से ,
बरसों से जो ,
वृक्ष के नीचे ,
या कहीं चौराहे पर,
गरीब बताकर ,
सदियों से ,
खुले हैं /


"नैन सुख"

आ नैन लड़ा लें
नैन सुख ,रसमय
सब दुःख भूल
उड़ चलें ,स्वप्न रथ
जीवन यात्रा ,
यूँ ही ,
और बढ़ा लें ,
नैन लड़ा लें ,
प्रेम बढ़ा लें /

"माँ "

यक्ष प्रश्न सा ,
माँ का आँचल
क्यूँ सुभीता
सामीप्य माँ का
तरसाता सब को
क्यूँ स्नेह जीता /

22 जन॰ 2012

"तीन हिंदी हाइकू"

१.जा खोल
दरवाजा खोल
नई किरण का ,
नई हवा का ,
स्वागत कर ,
आगत का /
२.य़ू ही ,
चक्की चलती रहती
पल पल सृष्टि
रंग बदलती /
३.सृष्टि के उत्सव में ,
इन पिंडों के कलरव में
जा अनगिनत ,
सूर्यों के साथ ,
फिर से ,
तांडव नृत्य कर ले /

20 जन॰ 2012

"गंतव्य"

जाने की दरकार नहीं है
आने के दरकार नहीं है
जहाँ बेठे हैं वहां हैं
जो बह रहा है वह है

आइये चलें बहाव के साथ
क्योंकि
बहाव ही ईश्वरीय प्रेरणा हैं
हमारे गंतव्य
पूर्व ही चुने हुए हैं
हाथ पैर मारेंगे तो
तेजी अवश्य आएगी
हम ऊपर दिखाई भी देंगे
क्यूंकि गंतव्य को मोड़ नहीं सकते
गंतव्य को छोड़ नहीं सकते
चुने हुए है हम
हम और हमारे गंतव्य //

19 जन॰ 2012

"तीन हिंदी हाइकू"

आइये ,
महान बनें
ज़मीन से उड़कर ,
आसमान पे चलें /

ज़िन्दगी ,
एक सीधी रेखा में ,
मृत्यु के गंतव्य की /

आ चलें !
रुकें नहीं
बहुत उलझाव है यहाँ
न देखें तो ही अच्छा
बोलें वही जो अच्छा है
सुनें वही
जो भला माना है
देश के लोगो ने तो
बापू के बंदरों को ही
सत्य माना /

18 जन॰ 2012

"स्वप्न -सत्य"

देखा सुना
पढ़ा और जाना
अपने को फिर ,
अलग सा माना,
शब्दों के विश्लेषण में उलझे
वो प्रश्न पुराने कभी न सुलझे /
तुझे स्वयं से अलग ही पाया
सत्संगी बन जान न पाया /
नचिकेता ,सुकरात बनूँ में
तू तू है ,मै ही हूँ मै मै /
प्रवचनों से भी जान न पाया
गीता गीत समझ न पाया /
धीरे धीरे द्वार खुले फिर ,
शब्दों के जाले टूटे फिर /
और अचानक टूट गया भ्रम
उलझ विचारों का टुटा क्रम /
तू मैं का तो भ्रम ही पाला,
टूट गया वो पूर्वतन जाला/
जो तू है -वो ही तो मै हूँ
तू से अलग मै ही कब हूँ/
सो अहम, सो अहम भाव प्रकाशित ,
एक आदि शब्द से सब परिभाषित /
पूर्ण तुष्ट फिर स्वयं को पाया
स्वप्न -सत्य सा सब कुछ पाया //

17 जन॰ 2012

" जल"

" जल" प्रारंभ सृष्टि का
वो वराह के दांतों में पृथिवी
इसी जल से तो निकली थी
अरी ओ माँ पृथ्वी
जल प्लावित पृथ्वी
मनु के शब्दों से गुंजित
मानवता का भान कराती
ओ चेतना की अनुभूति
ओ पृथ्वी बिन जल
क्षीर सागर का क्या
अस्तित्व हो पाता !
जल से जीव सृष्टि का ,
क्या फिर प्रारंभ हो पाता !

पेंटिंग

कूंची की लहर
वो दृष्टि की गहराई
इधर उधर
भाव समेटे
रंगों के भाव
लकीरों में भाव
वो निराकार को
आकर में बदलती
समवेत कून्चियाँ
भाव से सृष्टि
सृष्टि की एक रचना
मेरी रचना ,
मेरी पेंटिंग //

16 जन॰ 2012

ओ जेहादी !

जा जय घोष कर !
उन्मादी बन जा ,
भूल जा !
जिसे तू मार रहा है ,
वो मर कर भी ना मरा,
तेरे खुदा का नूर था वो ,
उसकी मुहब्बत से
भरपूर था वो /
तेरे जिहाद ने ,
उसे भी ना छोड़ा /
क्यूंकि ये जिहाद ,
खुदा के लिए नहीं ,
खुदा के नूर के लिए नहीं ,
सुव्यवस्था  के कफ़न के लिए है ,

कुछ राक्षसों के 
दम्भी अट्टहास के लिए है , 
जोड़ने के लिए नहीं ,
तोड़ने के लिए है /

ख़ुदा के नाम पर 
लगा रहे हैं   कलंक 
सत्तासीन राक्षस 
बाज नहीं आएंगे 
फैलाते रहेंगे 
बस ये  आतंक / 

पीहू पीहू में सच है कुछ !

पशु पक्षी अनपढ़ होते हैं ,
फिर भी संवादी होते हैं /
प्रातः काल वो कूक अनूठी ,
मैना फिर तोते से रूठी /

हमने शब्द गढ़े दर पीढी
भाषा उनकी मौन भाव की /
बुलबुल मिश्री प्रेम भाव की ,/

बड़े बड़े ग्रंथों से भी हम
प्रेम भाव को जता न पाए ,
कहाँ कौन वो पूर्ण प्रेम है ,
शब्दों से फिर बता न पाए /

शब्द बने आडम्बर अब ,
बाहर कुछ है अन्दर कुछ ,
सच्चे तो ये पक्षी ही हैं ,
पीहू पीहू में सच है कुछ //

प्रेम का मौन !

मनुष्य के उस पार ,
मानवीय मस्तिष्क के पार ,
कुछ है ,जो समझ से परे है /
जो देखा वो माना !
जो सुना ,वो विश्वास किया ,
जो न जाना ,तर्क से परखा ,
जिसकी कोई सीमा नहीं ,
पुस्तकों शास्त्रों में बंद वो ,
मानवीय प्रेरणा ,निशब्द /
बुद्ध के मौन में मिला ,
शांत सब कुछ !
विस्फोट असीमित शक्ति सा ,
अनवरत तरंग सा ,
स्वयं को प्रकाशित करता /
में हूँ में हूँ का नाद करता ,
सब प्रश्नों को व्यर्थ करता ,
शांत सब कुछ ,भाव में वो
प्रेम के मौन में मिलता !

ओ प्रकृति !

इधर उधर छटा सी बिखरी ,
गर्जन तर्जन ,
बादलों सी बिखरी ,
पर्वत सागर ,
वृक्षों के झुण्ड से ,
इधर उधर चंचल से ,
जीव जंतु ,
पानी या थल के ,
हरियाली या मरुथल ,
बिखरी इधर उधर ,
देख वो अमराई सी ,
प्रकृति ,
ओ प्रकृति !

14 जन॰ 2012

गा लोकपाल !

कानूनों के इस जंगल में ,
बीहड़ वन सा फंसता जाता ,
मतदाता हूँ प्रजा तंत्र का ,
हर भाषण में बँटता जाता /
देख गले का हार कानून ,
पढ़ ले इसका तू मज़मून ,
लोकपाल का बिल है ऐसा
मंदिर मूरत पूजा जैसा /
भ्रष्टाचारी हंटर लेकर ,
भ्रष्टाचार को दूर करेगा
और व्यवस्था फिर बदलेगी ,
चेहरे सिर्फ ;शरीर न बदलें ,
टोपी पहन ,टोपियाँ बदलें ,
कानूनों को फिर से रोंदे /
मेहनतकश की भूख न दिखती
गाँव गाँव पे कर्जा चढ़ता ,
मजदूरों की झुग्गी देखो ,
एक वक़्त ही चूल्हा जलता /
वो रिक्शा के पहिये जैसा ,
चलता जाता ,चलता जाता ,
मंजिल दूर नहीं है अब
रागनियों से दिल बहलाता /
आ लोकपाल अब रोटी दे दे ,
तेरी जेब अब और भरेंगे ,
भ्रष्टाचारी अब नए हंटर से ,
देशभक्त की चैन हरेंगे /
पेप्सीकोला के इस युग में ,
गाँधी बाबा रास न आते ,
लम्बी लम्बी कविताओं से तो ,
छोटे हाइकू सबको भाते /
तू पात पात ,में डाल डाल
आ गला फाड़ ,जन लोकपाल ,
सब कुछ देख लिया गरीब ने
ओ अमीर अब बदल चाल /
यह लोकपाल ,अब बने ढाल
कानूनों से बदले नेता चाल ,
कानून मुखौटे हैं शोषक के
मूल्य विहीन ,भ्रष्ट पोषक के ,/
मेहनतकश तो मेहनत करता ,
तिकड़म बाज़ तो जेब ही भरता ,
आ चल ना कर तू आज मलाल ,
छोड़ लबादे ,बन जा दलाल /
इन कानूनों की बीहड़ता में
जब तू भटकेगा ईमानदार,
यही दलाल पेटियां लेकर
तेरी नैया करेगा पार /
शोर मचेगा फिर शांत न होगा
सारा कलरव फिर उमडेगा ,
जा बैठ,कानून के उस गुम्बद पे ,
वो नए तंत्र को भेद न सकेगा /
उठा कुदाल हंसिया कर खट खट
तू अच्छा है यही लगा रट,
बुरा बुराई से बच ना सकेगा ,
कानून भी कुछ कर न सकेगा /
फसलों को फिर आग लगाता
तेरी भाषा कोई न सुनेगा ,
शामिल हो जा ,गा लोकपाल ,
कॉपोरेट, का नया जाल
गा लोकपाल ,उठा कुदाल
भर पेट उन्हीं का ,गा लोकपाल //

13 जन॰ 2012

बेताज बादशाही

हर व्यक्ति पूर्ण है / किन्तु हमारी भेद बुध्धि अनवरत क्रिया शील है ,अतः यह पूर्णता भी अधूरी लगती है /
कहीं कुछ रह गया है ,हम विश्राम हीन से अनवरत कुछ खोजते ही रहते हैं / हा हा ! आखिर यह खोज क्यों ? सब कुछ यहीं तो है आस पास !
किन्तु नहीं !यही खोज तो एक माध्यम है / एक मार्ग प्रशस्त करती है /जीवन को जीने का अर्थ देती है /
वो जो सामने अनखोजा है ,वही तो उत्प्रेरक है आगे बढ़ने का !

यदि हम रुक गए और विश्राम को गंतव्य मान लिया तो फिर प्रगति कहाँ ? क्रियाशीलता कहाँ ? फिर तो सिर्फ ब्लैक होल ही है "बिग बेंग " हो ही न पायेगा /
नुसरत फ़तेह अली खान का "तू एक गोरख धंधा है " हमारी इसी सूफी तड़प का एक भाग है !
अनेको तो इस तड़प में ही सूफी हो गए / पूजे गए ,प्रिय बने /
हज़रत निजामुद्दीन औलिया की मस्ती का यही राज था /
उनकी बेताज बादशाही उस समय के बादशाह को भी अखरी थी /

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