17 मार्च 2014

फिर खेलो होली

जेब कतरों को देख फैल गया रोष 

भुनाया गया फिर आम आदमी का आक्रोश 

ना नीति या दर्शन

 ना चिंतन या मनन 

बस आक्रोश मे शोर 

उन्हे छोड बाकी सब चोर //

बजा चुनावों का डंका

 देश जैसे हो लंका 

चाहे जैसी होगी नीति 

मिटेगी ना कभी ये राजनीति /

खा लो प्रजातंत्र की रोटी साथ मे अचार

बस वही वह भ्रष्टाचार /

उन्होने खाया भरपेट अब तुम भी खा डालो ,

ये व्यवस्था रसीली थालीतुम भी खेलो चुनावों की होली /

चुने हुओं की लगेगी बोली 

रातों रात बदलेंगे टोली /

नये नये रंगों से फिर खेलो होली 

फिर खेलो होली //


4 टिप्‍पणियां:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

राजनीति का सच को उजागर करती रचना |बहुत सुन्दर
होली की हार्दिक शुभकामनाऐं ।
new post: ... कि आज होली है !

रविकर ने कहा…

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय पहेली चर्चा चर्चा मंच पर ।।

Amrita Tanmay ने कहा…

बहुत ही सुन्दर लिखा है..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर रचना।
कुछ नया भी तो लिखिए।
अपनी अंग्रेजी की कविताओं का ही अनुवाद यहाँ लगाइए न।

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