5 जून 2016

कहाँ गया चाँद !

कहाँ हैं खग कहा हैं मृग
बस धुआँ उगलती गाड़ियां
बड़े शहरों की जग मग /
फूल भँवरे वो पर्वतों की श्रेणी
खो गयी कही वो नदियों की कल कल
जहाँ सुन्दरी गूँथती थी वेणी /
देखो उधर वो आग का गोला
जँगलों को निगलता बस  छोटा सा शोला /
कट रहे हैं जंगल हो रहे हैं भूस्खलन 
वृक्ष तो वृक्ष  पशु पक्षी भी  कम /
आखिर कब तक बस यही क्रम
मशीनों की भयानक खट खट में
खो गयी वो लताओं की वाटिका
कहाँ वो पुष्प पल्लवित
जहाँ कोयल की थी कूक                            
मानो मयूरों से नृत्य में
कहीं हो गयी चूक //
देखो डालियों के झुण्ड में
था बया का वो घोंसला
नोच ही डाला किसी ने
किसी शैतान सा था होंसला //
जंगल जंगल धुएँ के बादल
अब कही खो गयी वो शेर की मांद
छुप गया वो आसमां
दिखा न कब से
दादी का चाँद //

7 टिप्‍पणियां:

अभिव्यक्ति मेरी ने कहा…

प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य का सानिध्य पाने की अभीप्सा में व्याकुल मानव मन के भावों को उद्दीप्त करती एक रचना। वेहतरीन अभिव्यक्ति। मुझे तो बहुत अच्छी लगी।

Unknown ने कहा…

Aaj ka sach

Unknown ने कहा…

Aaj ka sach

Siddharth Srivastava ने कहा…

bahut khoob Sir..

World of Words ने कहा…

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Sjain ने कहा…

Very nice
http://srtpoemstory.blogspot.in/

Sjain ने कहा…

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