1 सित॰ 2024

आज की सोच

 युग परिवर्तन करें पहरुए 

रही विषमता हारे वो जुए 

घृणा से बढ़ी और घृणा 

रौशनी को छलते हुए /

नकारात्मक  में  प्रेम कहाँ 

भीड़ तंत्र में सत्य कहाँ 

आज़ादी हैं ढूंढो बस बुरा 

खो गए दर्शन बस मस्त सुरा //

सड़को पे रोष पोस्टर में बिखरा 

गालियों में सुख सत्य अखरा ,

संस्कृति सभ्यता राष्ट्र की सोच 

उस भीड़ के लिए इसमें भी लोच //

पूर्ण मासी को जब चाँद निखरा 

चांदनी को ही ये कहने लगे बुरा 

सूर्य के  ओज में तो 

धुप न गयी सही 

स्वार्थ में ओत प्रोत 

रौशनी भी चुभ रही //

परखते हुई भीड़ में मीन मेख असंतोष 

कैसी अब सोच हुई बस रोष ही रोष //


नव षड्यंत्रों के बीच ,आओ धरें धीरज 

आशाएं हो पल्लवित ,दिखे कीचड़ में नीरज /


मिल जुल फिर से आओ ढूंढे ऐसा मंत्र 

मधु मक्खी छत्ते सा होये राष्ट्र औ तंत्र //

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