न मैं अधूरा
किन्तु कहाँ कैसे हम
कहें स्वयं को पूरा ?
कहीं ,कहीं तो कुछ है
नहीं ,नहीं है मुझ में
कहीं खोजता सा
कहीं खींचता सा ,
नया न कुछ बनाता
नया न कुछ कहता ,
फिर उसी मिलन से
फिर वहीँ समाता /
प्रकृति के नियम सा
फिर रचूँ अधूरा ,
न तू उधर पूरी
न मैं इधर पूरा/
4 टिप्पणियां:
वाह !!!!!!!!
अद्भुत भाई नीरज जी कुछ हमें भी सिखा दो
विरह राग है या मिलन की बेला ? अब दोनों हो जाओ पूरे. बन जाओ एक जिस्म-एक जान.
Khoob kaha he
Khoob kaha he
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