8 मार्च 2015

ये लंका के लोग !

सोचा ,लिखा ,कागज को बुरा लगा /
क्यूँ उसके ऊपर रोज़ ,कलम चलाता हूँ ,
सोच सोच कर ,लिख लिख कर ,
क्या कभी कुछ ,परिवर्तन हो पाया है ?
ये सोये हुए लोग ,
समृधि के कोहरे में /
लंका की प्रजा की तरह ,
पूजा पाठ में लगे हैं ,या फिर ,
सुरबालाओं और सूरा की मधुशाला के ,
नृत्य व संगीत में ,कहीं खो गए हैं /

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